Popular Posts

Tuesday, September 3, 2013

अयोध्या फिर चुनावी रणभूमि में

शनिवार, 16 फरवरी 2013

अयोध्या फिर चुनावी रणभूमि में




भाजपा के नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने एक बार फिर राम मंदिर का मुद्दा उछाला है। विहिप से जुड़े हुए साधु.संतों ने भी कहा है कि राम मंदिर उनके एजेन्डे पर है। संघ परिवार के सभी शीर्ष नेता महाकुंभ में पहुंच रहे हैं और पवित्र गंगा में डुबकी लगाकर यह घोषणा कर रहे हैं कि सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में राम मंदिर का मुद्दा उनके चुनाव अभियान का केन्द्र बिन्दु होगा। 
यह सचमुच चिंतनीय है कि राम मंदिर का मुद्दा इस तथ्य के बावजूद उठाया जा रहा है कि इलाहबाद हाईकोर्ट यह निर्णय दे चुका है कि विवादित भूमि को तीन बराबर भागों में बांटकर,तीनों पक्षकारों.सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान. को सौंप दिया जाए। इस निर्णय को उच्चतम न्यायलय में चुनौती दी गई है और यह अपील देश के सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। इलाहबाद हाईकोर्ट के निर्णय के बाद आरएसएस ने कहा था कि बहुसंख्यकों की भावनाओं का आदर करते हुए मुसलमानों को अपने हिस्से की भूमि छोड़ देनी चाहिए। जहां मस्जिद थी, उस भूमि के मालिकाना हक के विवाद का मसला न्यायालय में लंबित होने के बावजूद विहिप आदि यह कह रहे हैं कि अयोध्या में कहीं भी मस्जिद का निर्माण नहीं होने दिया जाएगा। विहिप के अनुसार, मस्जिद का निर्माण अयोध्या की शास्त्रीय सीमा के बाहर किया जा सकता हैए जिसका वर्णन तुलसीदास की रामचरितमानस में किया गया है। कुल मिलाकर, विहिप का यह कहना है कि अयोध्या केवल हिन्दुओं की धर्मस्थली है। यहां यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि अयोध्या का अर्थ है युद्धया अर्थात युद्धमुक्त क्षेत्र। अयोध्या केवल हिन्दुओं के लिए पवित्र नहीं है। बौद्ध व जैन धर्मों की भी यह पवित्र स्थली रही है। पांचवी सदी ईसा पूर्व से अयोध्या में बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने बसना शुरू किया। यद्यपि बौद्ध धर्म को पहली सहस्त्राब्दी में विकट हमलों का सामना करना पड़ा तथापि इस धर्म के धर्मस्थलों के कुछ अवशेष अब भी अयोध्या में बचे हुए हैं। बौद्ध मान्यताओं के अनुसारए पहले और चैथे तीर्थंकंर का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या में जो सबसे पहले जो हिन्दू पूजास्थल बने वे शैव व वैष्णव पंथों के थे। विष्णु के अवतार के रूप में राम की पूजा तो बहुत बाद में शुरू हुई। राम की मूर्तियों की चर्चा छठी शताब्दी ईसवी के बाद ही सुनाई देती है। अयोध्या के सबसे बड़ा मंदिर हनुमानगढ़ी, जिस भूमि पर बना है वह अवध के नवाब ने दान दी थी। 
इस सिलसिले में यह मांग भी की जा रही है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण सरकार उसी तरह करवाए जिस तरह सोमनाथ मंदिर का निर्माण करवाया गया था। आडवानी और कई अन्य यह दावा करते रहे हैं कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माणए नेहरू मंत्रिमंडल के निर्णयानुसार करवाया गया था। यह सफेद झूठ है। चूंकि आमजन बहुत समय तक सार्वजनिक मसलों को याद नहीं रखते इसलिए इसका लाभ उठाकर झूठ को बार.बार दोहराकर उसे सच की शक्ल देने की कोशिशें चलती रहती हैं। यह वही कला है जिसमें हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स अत्यंत सिद्धहस्त थे। अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो एक बिल्कुल अलग चित्र सामने आएगा। भारत सरकार का सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से कोई लेनादेना नहीं था। यह झूठ है कि नेहरू सरकार ने सोमनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था या निर्माण कार्य में किसी भी प्रकार की सहायता या सहभागिता की थी। यह दुष्प्रचार केवल इस आधार  पर किया जा रहा है कि नेहरू मंत्रिमंडल के दो मंत्री अपनी व्यक्तिगत हैसियत से सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के कार्य में शामिल हुए थे। सच यह है कि जब सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का मसला सरदार पटेल द्वारा उठाया गया थाए तब महात्मा गांधी ने यह राय व्यक्त की थी कि हिन्दू अपने मंदिर का निर्माण करने में पूर्णतः सक्षम हैं और उन्हें न तो सरकारी धन और ना ही सरकारी मदद की जरूरत है। सरकार को ऐसी कोई मदद करनी भी नहीं चाहिए और ना ही मंदिर के निर्माण के लिए सरकारी धन का इस्तेमाल होना चाहिए।
सरदार पटेल की मृत्यु के बाद, नेहरू सरकार के दो मंत्रियों के. एम. मुंशी और एन. व्ही. गाडगिल ने अपनी व्यक्तिगत हैसियत से मंदिर के पुनर्निर्माण में हिस्सेदारी की। केबिनेट ने सोमनाथ मंदिर के संबंध में कभी कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया, जैसा कि साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा दावा किया जा रहा है। मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को उसका उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने पंडित नेहरू के कड़े विरोध के बावजूद यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया। पंडित नेहरू का यह मत था कि उच्च संवैधानिक, सार्वजनिक पदों पर विराजमान व्यक्तियों को किसी भी धर्म या उसके तीर्थस्थलों से संबंधित सार्वजनिक समारोहों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। 
बाबरी विध्वंस को बीस साल गुजर चुके हैं। हम आज पीछे पलटकर देख सकते हैं कि राम मंदिर आंदोलन ने देश की राजनीति और समाज को कितना गहरा नुकसान पहुंचाया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अयोध्या मामले में अदालत ने आस्था को अपने फैसले का आधार बनाया। परंतु इस निर्णय को उच्चतम न्यायालय मंे चुनौती दी गई है। क्या कारण है कि अपने एजेन्डे की घोषणा करने के पहले आरएसएस, उच्चतम न्यायालय के निर्णय का इंतजार नहीं कर सकता इसका असली कारण राजनैतिक है। मंदिर आंदोलन का हिन्दू धर्म से कोई संबंध नहीं है। संघ परिवार ने मस्जिद तोड़ी और उससे उसकी राजनैतिक ताकत बढ़ी। सन् 1984 के चुनाव में भाजपा के केवल दो उम्मीदवार लोकसभा में पहुंच सके थे। परंतु इसके बादए संघ परिवार ने ज्योंही इस मुद्दे का पल्लू थामा, भाजपा की लोकसभा में सदस्य संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। सन् 1999 के चुनाव में भाजपा के 183 उम्मीदवार  जीते। इस आंदोलन के कारण ही एक छोटे से दल से भाजपा सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन सकी। परंतु शनैः.शनैः इस मुद्दे का जुनून जनता के सिर से उतरने  लगा और 1999 के बाद से भाजपा की लोकसभा में उपस्थिति लगातार घटती गई। राम मंदिर मुद्दे को पुनर्जीवित करने की वर्तमान कोशिशए एक सोची.समझी रणनीति का हिस्सा है। भाजपा शायद यह सोच रही है कि राम मंदिर के मुद्दे को हवा देकर वह एक बार फिर भारतीय राजनीति के शीर्ष पर पहुंच सकती है।
परंतु इस रणनीति की सफलता संदिग्ध है। दो दशकों की अवधि में मतदाताओं का मिजाज बदल गया है। कम उम्र के युवाओं की मंदिरों आदि में बहुत कम रूचि है। वे अन्य समस्याओं से जूझ रहे हैं। फिर भी, समाज में एक ऐसा वर्ग है जिसकी भावनाओं को भड़काया जा सकता है। संघ परिवार अपने विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए इस मुद्दे को हवा देने की भरपूर कोशिश कर रहा है। आरएसएस जैसे संगठन केवल पहचान पर आधारित मुद्दों की दम पर जिन्दा रहते हैं। उनके लिए राम मंदिर का मुद्दाए तुरूप का इक्का है। बार.बार दोहराए गए इस तर्क कि राम मंदिर का संबंध भारतीय राष्ट्रीयता से है, ने कई लोगों को भ्रमित कर दिया है। हम सब यह जानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीयताए मंदिरों और मस्जिदों के इर्दगिर्द नहीं घूमती। भारतीय राष्ट्रीयताए धार्मिक राष्ट्रीयता नहीं है। प्रजातंत्र में राष्ट्रीयता को सैकड़ों वर्ष पहले हुए राजाओं के धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता। वैसे भीए सभी धर्मों के राजाओं के प्रशासनिक तंत्र में दोनों धार्मिक समुदायों के सदस्य रहते थे। हमें भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को एक बार फिर याद करना होगा। स्वाधीनता संग्राम ने ही भारत को एक राष्ट्र की शक्ल दी.एक ऐसे राष्ट्र की जो प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है। आईए,हम मंदिर.मस्जिद के मुद्दों को दरकिनार करें और उन मसलों पर ध्यान दें जिनका संबंध हमारे देश के करोड़ों नागरिकों की रोजी.-रोटी, रहवास और मूल समस्याओं से है।

 .-राम पुनियानी

जातिप्रथा उन्मूलन : दिल्ली अभी दूर है

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

जातिप्रथा उन्मूलन : दिल्ली अभी दूर है

डाक्टर भीमराव बाबासाहेब अम्बेडकर की जयंती ;14 अप्रैल पर हमने एक बार फिर इस महामना के सामाजिक न्याय और प्रजातांत्रिक मूल्यों को, भारतीय सामाजिक चिंतन के केन्द्र में लाने में, महान योगदान को याद किया। परंतु इस अवसर पर हमें यह भी सोचना होगा कि जाति प्रथा के उन्मूलन के उनके स्वप्न को हम कहां तक पूरा कर सके हैं। हमें इस पर भी विचार करना होगा कि स्वतंत्रता और भारतीय संविधान के लागू होने के छःह दशक गुजर जाने के बाद इस मसले पर हम कहां खड़े हैं। स्वाधीनताए समानता और बंधुत्व के जिन मूल्यों को हमने अपने संविधान का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया थाए क्या वे मूल्य सामाजिक.आर्थिक.राजनैतिक ढांचे का हिस्सा बन पाए हैं?
भारतीय और विशेषकर हिन्दू समाज में जाति हमेशा से एक महत्वपूर्ण तत्व रही है। जहां शेष विश्व में गुलामी का आधार सामाजिक.आर्थिक था वहीं हमने वर्ण व्यवस्था के जरिए इसे धार्मिक स्वीकृति दी। जातिप्रथा कैसे अस्तित्व में आईए इस संबंध में कई परिकल्पनाएं प्रस्तुत की गई हैं। जाति का उदय, आर्यों और भारत के मूल निवासियों के बीच नस्लीय विभेद से हुआ, यह परिकल्पना गलत सिद्ध हो चुकी है। मानवविज्ञानी मार्टन क्लास के अनुसारए जातिप्रथा, अतिशेष उत्पादन वाली उत्पादन व्यवस्था से आदिम जनजातीय समाज के अनुकूलन से उपजी। दूसरे शब्दों में, वे यह कहना चाहते हैं कि जाति का उदय, एक उत्पादन व्यवस्था विशेष के साथ हुआ। माक्र्सवादी इतिहासकार डी. डी. कौसम्बी के अनुसार, जाति, सामान्य समाज में जनजातियों के घुलने.मिलने की सतत प्रक्रिया से उपजी। जाति के उदय की हमारी समझ को विकसित करने में सबसे बड़ा योगदान डाक्टर अम्बेडकर का था, जिनके अनुसार, जाति व वर्ण विचारधारात्मक.धार्मिक कारकों से उपजे। उनके अनुसार, जातिप्रथा धर्मशास्त्रों की विचारधारा से उपजी और ये धर्मशास्त्र, ब्राहम्णवादी थे।
यह दिलचस्प है कि भारतीय समाज में जाति प्रथा केवल हिन्दुओं तक सीमित नहीं है बल्कि अन्य धार्मिक समुदाय भी इसकी चपेट में आ गए हैं। अंतर सिर्फ यह है कि जहां हिन्दुओं में जातिप्रथा को धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है वहीं अन्य धर्मों में यह सिर्फ एक सामाजिक परिघटना है। उदाहरणार्थ, मुसलमानों में अशरफ, अजलफ और अरजल जातियां हैं। इसी तरह,ईसाईयों और सिक्खों में भी अलग.अलग पंथ है। जाति व्यवस्था को सबसे पहले चुनौती दी गौतम बुद्ध ने, जिनका जोर समता पर था। समता की परिकल्पना बहुत लोकप्रिय हो गई और भारत में इसे व्यापक स्वीकृति मिली। परंतु 8वीं सदी ईस्वी में उन तत्वों ने,  जो वर्ण.जाति को पुनः स्थापित करना चाहते थे, बौद्ध धर्म पर हमला बोल दिया और भारत से उसका सफाया करके ही दम लिया। मध्यकाल में भक्ति संतों ने जाति प्रथा पर प्रश्नचिन्ह लगाए और ऊँचनीच को गलत ठहराया। यद्यपि उन्होंने नीची जातियों के दुःखों और कष्टों को आवाज देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथापि वे यहीं तक सीमित रह गए और उनका ब्राहम्ण पुरोहितों ने कड़ा विरोध किया।
मुस्लिम बादशाहों और अंग्रेजों के शासन में भी भारतीय उपमहाद्वीप का सामाजिक ढांचा जस का तस बना रहा। हांए ब्रिटिश शासन के दौरान औद्योगिकरण और आधुनिक शिक्षा के कारण, कुछ लोगों ने जाति प्रथा का विरोध किया, उसे चुनौती दी और उस पर प्रश्न उठाए। शनैः.शनैः जाति प्रथा की इमारत में दरारें आने लगीं। परंतु औद्योगिकरण और आधुनिक शिक्षा के बावजूद, जाति व वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ  यह अवश्य हुआ कि उसे गंभीर चुनौती मिलने लगी। जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए कई आंदोलन शुरू हुए जिनमें से जोतिबा फुले का आंदोलन काफी महत्वपूर्ण व लोकप्रिय था। परंतु ये आंदोलन भी जाति प्रथा को उखाड़ फेकनें में सफल नहीं हुए क्योंकि भारत में आधुनिकीकरण के समानांतर, सामंती उत्पादन व्यवस्था भी बनी रही। समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण और जमींदारी के उन्मूलन की प्रक्रिया अधूरी रही और पुरोहित वर्ग का प्रभुत्व बना रहा। इन सब प्रक्रियाओं के अधूरे रहने के कारण, जाति प्रथा के उन्मूलन की प्रक्रिया भी अधूरी रह गई।
बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा प्रारंभ किए गए सभी आंदोलनों का लक्ष्य सामाजिक न्याय, समानता और प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना था। उन्होंने पानी के सार्वजनिक स्त्रोतों पर सभी को अधिकार दिलवाने के लिए चावदार तालाब आंदोलन चलाया। मंदिरों में दलितों को प्रवेश दिलवाने के लिए कालाराम मंदिर आंदोलन शुरू किया। जातिगत ऊँचनीच को धार्मिक स्वीकृति देने वाली मनुस्मृति की प्रतियां उन्होंने जलाईं। उनके इन प्रयासों का जबरदस्त विरोध हुआए जिसके चलते वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्राहम्णवादी मूल्यों के प्रभुत्व वाले हिन्दू धर्म को छोड़ देना ही उनके लिए बेहतर होगा। उनके आन्दोलन को सामाजिक.राजनैतिक समर्थन मिला राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से संघर्षरत था और प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना, जिसके लक्ष्यों में शामिल थी। यद्यपि अम्बेडकर को राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन प्राप्त था परंतु इस आंदोलन के नेतृत्व में भी उच्च जातियों का बोलबाला होने के कारण वे यह उम्मीद नहीं कर सकते थे कि यह आंदोलन, सामाजिक न्याय की लड़ाई का पूर्ण व बिना शर्त समर्थन करेगा। महात्मा गांधी और अम्बेडकर के बीच मतभेदों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। गांधीजी चाहते थे कि सभी जातियों के लोग स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी करें। इसलिए वे जाति प्रथा का विरोध एक सीमा तक ही कर सकते थे। गांधीजी ने अछूत प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई परंतु वर्णव्यवस्था के तनिक परिष्कृत स्वरूप को उनकी मौन स्वीकृति थी।
गांधीजी ने मैक्डोनाल्ड के कम्युनल एवार्ड में प्रस्तावित पृथक मताधिकार का विरोध किया। सन् 1932 में पारित इस एवार्ड को डाक्टर अम्बेडकर का पूर्ण समर्थन था। गांधीजी और अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए जिसके नतीजे में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण और सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था अस्तित्व में आई। अम्बेडकर को उम्मीद थी कि आरक्षण और अंतरजातीय विवाहों के चलते जाति प्रथा का उन्मूलन हो जाएगा। इन दोनों ही को आज समाज में कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जाति प्रथा और मजबूत हो रही है और परंपरावादी तबके द्वारा अंतरजातीय विवाहों को रोकने की हर संभव कोशिश की जा रही है।
गांधीजी के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आंदोलन ने पूरी तौर पर न सही परंतु आंशिक तौर पर दलितों के अधिकारों को मान्यता दी। परंतु उसी दौरान उभरी एक दूसरी विचारधारा.धार्मिक राष्ट्रवाद की विचारधारा.जिसका लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र का निर्माण थाए दलितों के मसले पर यथास्थिति की हामी थी। अम्बेडकर को यह अहसास था कि धार्मिक राष्ट्रवाद को स्वीकृति और उसके आधार पर पाकिस्तान का निर्माणए दलितों के लिए बहुत बड़ी आपदा होगी क्योंकि उससे हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की राह प्रशस्त होगीए जिसमें दलितों को गुलामी के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होगा। आज अनेक समीक्षक गांधीजी पर तीखे हमले कर रहे हैं परंतु उन्हें हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद की राजनीति और विचारधारा के प्रभाव पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यही विचारधारा आज भारत में जाति प्रथा के उन्मूलन की राह में सबसे बड़ी बाधा है।
दलितों के लिए आरक्षण ने नए जातिगत समीकरणों को जन्म दिया। उदित होते मध्यम वर्ग के एक हिस्से ने आरक्षण का डटकर विरोध किया। 1980 के दशक में गुजरात में आरक्षण विरोधी हिंसा हुई। चूंकि हमारे देश के विकास में सभी वर्गों को समान अवसर नहीं मिल पा रहे हैं इसलिए एक अजीब सी स्थिति बन गई है। वह यह कि कई समुदाय, आरक्षित वर्ग में स्थान पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। युवाओं को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है और इसलिए वे अपनी.अपनी जातियों को इस या उस आरक्षित वर्ग में शामिल करवाने के लिए आंदोलनों में बढ़.चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। जाति व्यवस्था के खात्मे की राह में सबसे बड़ी बाधा है हिन्दुत्व की राजनीति। यह राजनीति सामाजिक समरसता की बात करती है। हिन्दुत्वादियों के  एकात्म मानवतावाद की परिकल्पना यह है कि विभिन्न जातियों के उनके लिए निर्धारित कार्य निष्ठापूर्वक करते रहने पर ही समाज का संचालन सुगमतापूर्वक हो सकेगा। धार्मिक.राजनैतिक ताकतों द्वारा नीची जातियों को सोशल इंजीनियरिंग के जरिए हिन्दुत्व के झंडे तले लाने की कोशिश हो रही है। इनका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों के विरूद्ध सड़कों पर खूनखराबा करने के लिए किया जाता है। दलितों का एक हिस्सा भी हिन्दुत्ववादी ताकतों का पिछलग्गू बन गया है और ऊँची जातियों की नकल कर रहा है। विभिन्न टी वी सीरियल और जगह.जगह ऊग आए बाबागण मनुस्मृति के परिष्कृत संस्करण का प्रचार.प्रसार कर रहे हैं।
इसके साथ ही प्रगतिशील व दलित बुद्धिजीवियों का एक तबका मानवीय मूल्यों की स्थापना और जाति.वर्ण व्यवस्था के खिलाफ गंभीरता और निष्ठा से संघर्ष कर रहा है। वर्तमान परिस्थितयां अत्यंत जटिल हैं। जाति आज भी हमारे समाज का अभिन्न अंग बनी हुई है। जहां तक राजनीति का प्रश्न है, इसमें एक ओर प्रजातांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला तबका है तो दूसरी ओर धार्मिक राष्ट्रवाद में विश्वास करने वाला। दूसरा तबका जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच को बनाए रखना चाहता है।
भारत एक सच्चा प्रजातांत्रिक समाज तभी बन पाएगा जब यहां सामाजिक समानता स्थापित हो और जातिप्रथा जड़मूल से समाप्त हो जाए। इसके लिए कई स्तरों पर आंदोलन चलाए जाने की आवश्यकता है। यही भीमराव बाबासाहेब को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

.-राम पुनियानी
राज पाट के हाथ बहोत लाम्बे बताये पर 
जब जनता मुठ्ठी भींच कै हाथ ठादे सै तो 
ये हाथ बहोत छोटे होज्यां सैं । दुनिया का 
इतिहास यही बताता है । 

मोदी परिघटना: भारतीय प्रजातंत्र पर हमला

सोमवार, 26 अगस्त 2013


मोदी परिघटना: भारतीय प्रजातंत्र पर हमला

आरएसएस-भाजपा द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की आशा में, नरेन्द्र मोदी इन दिनों (अगस्त 2013) प्रिंट इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया पर छा जाने की कोशिश कर रहे हैं। और इसके लिए उस प्रचारतंत्र का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसे मोदी ने बड़ी मेहनत से और बहुत धन खर्च कर खड़ा किया है। गुजरात के 2002 के कत्लेआम में मारे गए लोगांे के लिए मोदी खुलेआम ‘‘कार से दबकर मरने वाले कुत्ते के पिल्ले’’ आदि जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हांेने जोर देकर कहा है कि वे ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ हैं। जहां एनडीए के पुराने गठबंधन साथी एक-एक कर उसे छोड़ते जा रहे हैं, वहीं आरएसएस-भाजपा को उम्मीद है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त और गुजरात को विकास की नई ऊँचाइयों तक ले जाने वाले एक कार्यकुशल प्रशासक की उनकी छवि के कारण मोदी सन् 2014 के चुनाव जीत लेंगे। सोशल मीडिया व अन्य मंचों पर हिन्दुओं का धुव्रीकृत हो चुका हिस्सा और मध्यम वर्ग का एक तबका, मोदी की तारीफों के पुल बांध रहे हैं और ऐसा भ्रम पैदा कर रहे हैं कि मोदी का देश का अगला प्रधानमंत्री बनना तय है।
दरअसल, मोदी के प्रधानमंत्री बनने की कोई संभावना नहीं है। वे केवल एक दिवास्वप्न देख रहे हैं। हम सब जानते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीडि़तों और धार्मिक अल्पसंख्यकों का एक बहुत बड़ा तबका, मोदी को तनिक भी पसंद नहीं करता है। जिन लोगों ने गुजरात के विकास के माडल का गहराई से अध्ययन किया है वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वह खोखला है। विकास का भ्रम, अंधाधुंध प्रचार के जरिए पैदा किया गया है। परन्तु हम सबको यह समझने की जरूरत है कि ‘मोदी ब्राण्ड’ क्यों और कैसे उभरा और मोदी की राजनीति को नजरअंदाज करने मंे क्या खतरे हैं। यद्यपि मोदी की 2014 में प्रधानमंत्री बनने की कोई संभावना नहीं है। तथापि हमें यह समझने की जरूरत है कि मोदी और उनके जैसे अन्यों की राजनीति, ‘साम्प्रदायिक फासीवाद’ की राजनीति है। ऊपर से देखने में ऐसा लग सकता है कि यह राजनीति केवल अल्पसंख्यक-विरोधी है परन्तु सच यह है कि इस राजनीति का उद्देश्य प्रजातंत्र के रास्ते सत्ता हासिल करना और उसके बाद प्रजातंत्र को ही समाप्त कर देना है। इसके एजेण्डे में शामिल है दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और श्रमिकों के मानवाधिकारों का दमन।
मोदी, आरएसएस के प्रशिक्षित प्रचारक हैं। वे हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा में रचे-बसे हैं और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं। हमारे देश में, जहां अधिकांश लोगों की जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएं ही पूरी नहीं होतीं, आरएसएस ने जानबूझ कर हिन्दुओं के एक तबके की पहचान से जुड़े अप्रासंगिक मुद्दों को सामने लाया। इसके साथ ही, इतिहास के तोड़ेमरोड़े गए तथ्यों और पीडि़तों को दोषी बताकर, एक ऐसा ‘काॅकटेल’ तैयार किया गया, जिसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकांे के खिलाफ झूठा प्रचार करने के लिए किया जाने लगा।
सभी धर्मों के लोगों को साथ लेकर चलने की स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्व की नीति, आरएसएस को स्वीकार्य नहीं थी। आरएसएस ने ऐसे स्वयंसेवक तैयार करने शुरू किए जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए काम करना था। संघ ने स्वाधीनता आंदोलन से हमेशा दूरी बनाकर रखी। आरएसएस की स्थापना चितपावन ब्राह्मणों ने की थी और यह केवल पुरूषों का संगठन है।
अपनी शाखाओं के जरिए, आरएसएस ने अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा फैलाने और धर्मनिरपेक्षता व भारतीय संवैधानिक मूल्यांे को खारिज करने का अपना अभियान शुरू कर दिया। यह अभियान निरन्तर चलता रहा। आरएसएस ने सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र में काम करने वालों में भी अपनी घुसपैठ बना ली। आईटी पेशेवरों की ‘वेब बैठकें’ आयोजित की जाने लगीं जिनका नाम ‘आईटी मिलन’ रखा गया। आरएसएस ने सोशल मीडिया का भी बड़ा जबरदस्त और प्रभावी इस्तेमाल शुरू किया। इसके अतिरिक्त, विभिन्न बाबाओं और साधुओं, जिनमें पाण्डुरंग शास्त्री हठावले, आसाराम बापू, बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर इत्यादि शामिल हैं, ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से संघ की अवधारणाओं और हिन्दू राष्ट्र के मूल्यों का प्रचार शुरू कर दिय
गोधरा के बाद भड़की हिंसा इस बात का सुबूत थी कि किस तरह राज्य, हिंसा को बढ़ावा दे सकता है। गुजरात के पहले तक भारत में पुलिस और राज्य मुख्यतः साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान दर्शक की भूमिका निभाता रहा था और अनेक मामलों में पुलिस, दंगाइयों का साथ देती थी। गुजरात में पहली बार मोदी के नेतृत्व में राज्य ने हिंसा भड़काने और उसे बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाई। यद्यपि ऐसा दावा किया जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जांचदल ने मोदी को क्लीन चिट दे दी है तथापि तथ्य यह है कि उसी रिपोर्ट के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त न्यायमित्र राजू रामचन्द्रन का यह मानना है कि मोदी के विरूद्ध, सन् 2002 के दंगों के सिलसिले में मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त सुबूत उपलब्ध हैं। हिंसा के बाद, गुजरात सरकार ने पीडि़तों का पुर्नवास करने की अपनी नैतिक व कानूनी जिम्मेदारी से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया। गुजरात में अल्पसंख्यकों को समाज के हाशिए पर पटक दिया गया है। अल्पसंख्यकों की एक बड़ी आबादी, अहमदाबाद तक में अपनी बस्तियों में सिमटने पर मजबूर कर दी गई है। उनके राजनैतिक व सामाजिक अधिकारों के रौंदा जा रहा है और वे दूसरे दर्जें के नागरिकों का जीवन बिताने पर मजबूर हैं। गुजरात के विकास का जमकर ढोल पीटा जा रहा है जबकि तथ्य यह है कि गुजरात, पहले से ही विकसित राज्य था। ‘वाईबे्रन्ट गुजरात’ सम्मेलनों के जरिए, गुजरात में भारी निवेश होने के दावों मंे कोई दम नहीं है। इन सम्मेलनों में निवेश के जो लंबेचैड़े वायदे किए गए, उनमें से अधिकांश पूरे नहीं हुए हैं। गुजरात, विकास के असली मानकों पर काफी पीछे छूट गया है। पिछले 15 सालों में गुजरात में लिंगानुपात तेजी से गिरा है। रोजगार सृजन की दर में कमी आई है, प्रतिव्यक्ति व्यय घटा है और गर्भवती महिलाओं के हीमोग्लोबिन स्तर के मामले में, गुजरात अन्य राज्यों से बहुत पीछे है।
मोदी, हिन्दुत्ववादी एजेण्डे का आक्रामक चेहरा हैं। उन्होंने अब खुलकर यह कहना शुरू कर दिया है कि वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं। यह इंगित करता है उस साम्प्रदायिक फासीवाद को, जिसे संघ परिवार देश पर लादना चाहता है। और मोदी इस परिवार के प्रमुख नेता बनकर उभरे हैं। मोदी के नेतृत्व वाले संघ परिवार का मुख्य आधार एक ओर कारपोरेट सेक्टर है तो दूसरी ओर मध्यम दर्जे के कारपोरेट कर्मचारी व आईटी-एमबीए समुदाय। मोदी ने गुजरात में यह साबित कर दिया है कि वे उद्योगपतियों की खातिर सरकारी खजाने का मुंह खोलने को तत्पर हैं और उन्हें जमीन, कर्ज व अन्य आवश्यक सुविधाएं सस्ती से सस्ती दर पर उपलब्ध करवाने के लिए तैयार हैं। इससे कारपोरेट सेक्टर बहुत प्रभावित है और उनके पीछे मजबूती से खड़ा हो गया है। कारपोरेट मीडिया बिना किसी जांच पड़ताल के, विकास के उनके दावों का अंधाधुंध प्रचार कर रहा है। गुजरात में सरकार ने समाज कल्याण योजनाओं से किनारा कर लिया है और इस कारण वहां के गरीब कष्ट भोग रहे हैं। जहां तक अल्पसंख्यकों का सवाल है, सच्चर समिति की रपट पर आधारित केन्द्रीय योजनाओं को राज्य मंे लागू नहीं किया जा रहा है और मुस्लिम विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा दिए जा रहे अनुदान को हर साल वापस लौटाया जा रहा है। अल्पसंख्यकों की बेहतरी की योजनाओं को मोदी किसी भी स्थिति में लागू करने के लिए तैयार नहीं।
वे कारपोरेट जगत, मध्यम वर्ग, व्यापारियों और आरएसएस के कट्टर समर्थकों के प्रिय पात्र बन गए हैं। ये सभी वर्ग मोदी को अलग-अलग रूप में देखते हैं और वे किसी न किसी तरह, उनके खांचे में फिट बैठ रहे हैं। कारपोरेट सोचते हैं कि मोदी उन्हें संसाधनों को लूटने की छूट देंगे। मध्यम वर्ग जानता है कि मोदी वंचित वर्गों और अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को रोकने में सबसे सक्षम है।
जहां एक ओर मोदी और आरएसएस के एजेण्डा का जमकर प्रचार किया जा रहा है और बहुत से लोग यह मानकर चल रहे हैं कि मोदी का राष्ट्रीय क्षितिज पर उदय निश्चित है, वहीं इसमें कोई संदेह नहीं कि सत्ता के ढांचे के शीर्ष पर यदि मोदी पहुंचे तो वे हिटलर के रास्ते पर चलेंगे। हमारे देश में भारी विभिन्नताएं हैं और विभिन्न समूहों के अपने अपने हित हैं। इनमें से बहुत से समूह यह जानते हैं कि मोदी व आरएसएस, देश पर हिन्दू राष्ट्र लादेंगे और यह भी कि हिन्दू राष्ट्र, साम्प्रदायिक फासीवादी राज्य का पर्यायवाची है। भारत की विविधता और मोदी के सत्ता में आने के संभावित नतीजे इसका  पर्याप्त प्रमाण हैं कि मोदी हमारे प्रजातंत्र के लिए एक खतरा हैं और उन्हंे हराने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। संघ परिवार और कारपोरेट जगत उनकी छवि को बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत करेगा परन्तु आमजनों को चाहिए कि वे इस जाल में न फंसे। यद्यपि मोदी ऐसा प्रदर्शित कर रहे हैं मानो वे उदार बन गए हों परन्तु सच यह है कि उनकी मूल प्रवृत्ति और सिद्धांतों में कभी कोई फर्क नहीं आयेगा। मोदी के चुनावी करतबों को आम जनता को सिरे से खारिज करना चाहिए।
-राम पुनियानी

Saturday, July 13, 2013

Sunday, January 20, 2013